उत्तर प्रदेश में उपचुनाव के दौरान दलित समुदाय पर बढ़ते अत्याचार की घटनाएं सामने आई हैं, जिसमें मारपीट, हत्या और सामाजिक बहिष्कार जैसी घटनाएं शामिल हैं। सियासी माहौल में दलितों पर हो रहे अत्याचारों को लेकर सवाल उठ रहे हैं कि क्या चुनावी शोर के बाद इन घटनाओं पर ध्यान दिया जाएगा या ये गुम हो जाएंगी ?
उत्तर प्रदेश में 2024 के उपचुनाव के दौरान दलित समुदाय पर अत्याचार की घटनाएं तेजी से बढ़ रही हैं, जिससे चुनावी माहौल में एक बार फिर समाज के कमजोर वर्ग पर होने वाले हमलों को लेकर सवाल उठने लगे हैं। जहां एक ओर लोकतांत्रिक प्रक्रिया में हर नागरिक का समान अधिकार होता है, वहीं दूसरी ओर चुनावी तनाव के बीच दलितों को राजनीतिक साधन के रूप में इस्तेमाल करने और उन पर अत्याचार की घटनाओं में इजाफा हुआ है। इस बार की घटनाएं चुनावी राजनीति के सियासी खेल में दलितों को एक बार फिर से निशाना बनाती दिख रही हैं।
राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता या साजिश?
पिछले तीन महीनों में दलितों पर अत्याचार के 150 से अधिक मामले सामने आए हैं, जिनमें मारपीट, बलात्कार, घर जलाना, और सामाजिक बहिष्कार जैसी घटनाएं शामिल हैं। एक रिपोर्ट के मुताबिक, इन घटनाओं के पीछे राजनीतिक कारणों का हाथ है, जहां विरोधी पार्टी के समर्थकों को धमकाया जाता है और वोट देने के लिए दबाव डाला जाता है। कई पीड़ितों ने आरोप लगाया है कि उन्हें विरोधी दल के पक्ष में न जाने या भाजपा को वोट न देने के लिए धमकाया गया था, जिसके परिणामस्वरूप उन पर हमले हुए। इस तरह के अत्याचारों को राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता के तहत साजिश के रूप में देखा जा रहा है।
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करहल की दर्दनाक घटना: दलित युवती की हत्या
इन घटनाओं में सबसे चौंकाने वाली घटना मैनपुरी जिले के करहल क्षेत्र में हुई, जहां एक दलित युवती की हत्या कर दी गई। रिपोर्ट के मुताबिक, युवती को वोट डालने के बाद अगवा किया गया और फिर उसकी हत्या कर शव को बोरे में बंद कर नदी में फेंक दिया गया। युवती के परिवार का आरोप है कि आरोपी ने उसे भाजपा को वोट देने की धमकी दी थी और जब उसने विरोध किया, तो उसे मार डाला। पुलिस ने आरोपी को गिरफ्तार कर लिया है, लेकिन इस हत्या ने चुनावी माहौल में दलितों के खिलाफ बढ़ते अपराधों को उजागर किया है।
दलित नेताओं की मांग: निष्पक्ष जांच और सुरक्षा
दलित नेताओं और संगठनों ने इन घटनाओं की कड़ी निंदा की है और सरकार से निष्पक्ष जांच की मांग की है। बसपा सुप्रीमो मायावती ने भी इस पर टिप्पणी करते हुए कहा कि “चुनाव के दौरान दलितों पर अत्याचार एक सियासी खेल का हिस्सा बन चुका है।” उन्होंने सरकार से आग्रह किया कि इन घटनाओं को गंभीरता से लिया जाए और कठोर कदम उठाए जाएं ताकि ऐसे हमलों को रोका जा सके।
सत्ता का खेल या हाशिये का दर्द?
विशेषज्ञों का मानना है कि चुनाव के दौरान दलितों पर अत्याचार की घटनाएं अक्सर राजनीतिक एजेंडा सेट करने के लिए होती हैं, ताकि विरोधी को कमजोर किया जा सके। इन घटनाओं से समाज में जातिवाद और असमानता की खाई और गहरी होती जा रही है, जो समाज में सामूहिक सद्भाव को कमजोर करती है। दलितों के खिलाफ बढ़ते अत्याचार और असमानता का यह डर समाज के हर वर्ग को प्रभावित कर रहा है और इससे लोकतांत्रिक व्यवस्था की साख पर सवाल उठ रहे हैं।
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न्याय का इंतजार
इन घटनाओं में अधिकांश पीड़ितों को अब भी न्याय का इंतजार है। सवाल यह है कि क्या इन मुद्दों को सुलझाया जाएगा या फिर यह घटनाएं सियासी शोर के बीच गुम हो जाएंगी। जहां एक ओर सरकार इन मामलों को लेकर कार्रवाई करने का दावा कर रही है, वहीं दूसरी ओर राजनीतिक दलों के बीच आरोप-प्रत्यारोप का दौर जारी है। इस पूरे घटनाक्रम से एक बड़ा सवाल उठता है कि क्या चुनावी माहौल में दलितों के खिलाफ अत्याचार की घटनाएं केवल एक सियासी खेल बनकर रह जाएंगी, या इस पर ठोस कदम उठाए जाएंगे?
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