हमें यह स्वीकार करते हुए एक लम्बा समय बीत चुका है कि संसार में मौजूद प्रत्येक प्राकृतिक संसाधन पर सभी का सामान अधिकार है परंतु हम अभी यह स्वीकार नहीं कर पाए कि शिक्षा रूपी बौद्धिक संसाधन पर भी सभी का समान अधिकार है। जिस प्रकार जीवन जीने के लिए प्राकृतिक संसाधन हर व्यक्ति के लिए आवश्यक हैं, ठीक उसी प्रकार राज्य की उन्नति एवं समाज में संतुलन स्थापित करने के हेतु शिक्षा भी हर व्यक्ति के लिए आवश्यक है। शिक्षा एक ऐसा बौद्धिक संसाधन है जो राज्य एवं समाज के द्वारा प्रत्येक व्यक्ति को आवंटित किया जाना चाहिए। यह राज्य एवं समाज की नैतिक जिम्मेदारी है कि कम से कम इस बौद्धिक संसाधन से कोई भी व्यक्ति अछूता ना रह पाए; परंतु आज जब हम अपनी सामाजिक एवं राजनीतिक व्यवस्थाओं को टटोलते हैं तो ज्ञात होता है कि उनमें विभिन्न प्रकार की पारंपरिक, धार्मिक एवं सामाजिक रूढ़िगत विषमताएँ मौजूद हैं। विशेष रूप से ये विषमताएं शिक्षण संस्थाओं में पाई जाती हैं।
आज शिक्षण संस्थानों का परिवेश इतना कलुषित हो चुका है कि निम्न समझी जाने वाली जातियों से आने वाले विद्यार्थियों को वहाँ इतनी छूट नहीं दी जाती कि वह अपने शिक्षा के अधिकार को प्राप्त कर सके। आज हमारे समक्ष अनेक उदाहरण मौजूद हैं कि जब कोई विद्यार्थी या जिज्ञासु शिक्षण संस्थानों में शिक्षा प्राप्त करने के लिए आता है तो उसे कई किस्म के भेदभाव का सामना करना पड़ता है। शिक्षण संस्थानों की स्थिति इतनी भयावह हो चुकी है कि देश के प्रतिष्ठित शिक्षण संस्थानों में जातिगत भेदभाव के कारण आत्महत्या करने के मामलों में बढ़ोतरी हो रही है। यह भेदभाव हमारे शिक्षण संस्थानों में अलग-अलग रूपों में गहराई तक जड़े जमा चुका है; जिसका शिकार आज अनेकों विद्यार्थी अलग-अलग प्रकार से हो रहे हैं। इस प्रकार की घटनाओं में अधिकता के चलते हमारे तथाकथित प्रगतिशील समाज ने भी इनको एक सामान्य घटना के रूप में स्वीकारना आरम्भ कर दिया है।
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यह बात किसी से छिपी नहीं है कि जातिगत भेदभाव की इन कुरीतियों ने हमारी धार्मिक परम्पराओं एवं पुस्तकों से ही जन्म लिया है। इस प्रकार की विषमताओं को ऐतिहासिक स्त्रोतों से ही ऊर्जा मिलती है। इतिहास के रीति-रिवाजों से ही इस तरह के पूर्वग्रह अस्तित्व में आते हैं। यह बात भी सत्य है कि समय-समय पर हमारी सभ्यता में भेदभाव की इस खाई को पाट शिक्षा को सभी के लिए आवश्यक बताया। समय-समय पर इन भेदभावों को समाप्त करने हेतु भी आवाज़ें उठीं परंतु इसका समाधान नहीं हो पाया। प्राचीन यूनानी सभ्यता के प्रमुख चिंतकों और शायद दुनिया की बौद्धिक परम्परा के सबसे पहले प्रवर्तकों में से एक अरस्तू ने भी राजनीतिक उद्देश्य की पूर्ति के लिए ही सही लेकिन सभी नागरिकों के लिए शिक्षा को आवश्यक माना। भारत में स्वयं महात्मा गांधी जी भी वर्धा शिक्षा योजना 1937 के तहत जनसाधारण की अशिक्षा को भारत के लिए पाप और कलंक मानते हुए सभी के शोषण-विहीन, निःशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा की बात कहते हैं परंतु स्थिति इसके विपरीत ही नज़र आती है।
आज निम्न समझी जाने वाली जातियों से कई विद्यार्थी तमाम मुश्किलों को पाटते हुए उच्च शिक्षण संस्थाओं में आते हैं, अच्छे अंक भी प्राप्त कर लेते हैं, कोई प्रकार की छात्रवृत्ति भी प्राप्त कर लेते हैं परंतु जब नेतृत्व एवं रोज़गार देने की बात आती है तो स्थिति वही ‘ढाक के तीन पात’ जैसी प्रतीत होती है। निम्न समझी जाने वाली जातियों से आने वाले व्यक्तियों को जो अवसर मिल सकते थे; कई बार जातिगत भेदभाव के कारण नहीं मिल पाते। बहुत बार जातिगत भेदभाव से पहले जातिगत पक्षपात आ जाता है। हमारे समाज का एक बड़ा वर्ग मानसिक रूप से अपनी जाति का इतना गुलाम बन चुका है कि वह किसी दूसरी जाति से आने वाले व्यक्तियों की अच्छाइयों को भी स्वीकार नहीं कर पाते और केवल उसी जाति के आसपास घूमने लगते हैं; जिससे वह स्वयं होते हैं।
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ऐसे में प्रश्न यह आता है कि इन सभी समस्याओं से छुटकारा कैसे पाया जाए? इसके समाधान हेतु अनेक आलेख एवं पुस्तकें लिखी जा चुकी हैं, कई आंदोलन हो चुके हैं, संसद में कई जनता प्रतिनिधि इस विषय पर चर्चा कर चुके हैं, कई बार यह मुद्दा खबरों की सुर्ख़ियों में भी रहा लेकिन स्थिति नहीं बदली। हमारे संविधान में ऐसे तमाम प्रकार के भेदभावों के लिए पर्याप्त बड़े-बड़े उपबंध एवं अनेक अधिनियम होने के बावजूद भी ऐसी विषमताएँ आज भी जीवित हैं। जब हम वास्तविकता के धरातल पर उतर अपने अकादमिक कुरुक्षेत्र का भ्रमण करते हैं तो हमें संविधान की कोई प्रतिध्वनि वहाँ सुनाई नहीं देती। समानता यह सामाजिकता की बात करने वाले किसी राजनीतिक भाषण की गूंज वहाँ तक नहीं पहुँच पाती। राजनीति के उत्तरदायित्व में जो छेद है; उसका लाभ उठाकर आज भी उच्च समझी जाने वाली जातियों के लोग निम्न समझी जाने वाली जातियों से आने वाले विद्यार्थियों का शोषण कर रहे हैं और उनको नेतृत्व के अवसर एवं नियुक्तियों में प्राथमिकता देने से कतराते हैं।
इस अकादमिक कुरुक्षेत्र के शीर्ष पर बैठे लोग बाक़ायदा संविधान को जानते हैं। उनकी कुर्सियों के पीछे गांधी की मूर्ति एवं अम्बेडकर की फ़ोटो लगी मिलेगी। टेबल के कांच के नीचे संविधान की प्रस्तावना दिख जाएगी परंतु मानसिकता उन्हीं पूर्वग्रहों से ग्रसित मिलेगी और प्रश्न उसी मन:स्थिति में बदलाव का है। राजनीतिक एवं संवैधानिक रूप से भले ही हम स्वतंत्र हो गए हों लेकिन एक बहुत बड़ा वर्ग आज भी जातीयता का ग़ुलाम है। आज आवश्यकता इस बात की है कि अकादमिक जगत के शिखरों पर बैठे लोग जाति का चश्मा उतार मानवीयता के आधार पर सभी पूर्वग्रहों को हटा, प्रतिभा के आधार पर मूल्यांकन करना शुरू करें।
आज मन में बदलाव लाने की आवश्यकता है क्योंकि मानसिक पूर्वाग्रह को कोई भी समाज, संविधान या राजनीति बदल नहीं सकती। इसको व्यक्ति स्वयं अपने अंदर मानसिक एवं मानवीय रूप से बदलाव लाकर ही बदल सकता है। तब ही यह सम्भव है कि यदि कोई अध्यापक विद्यार्थी के कीचड़ में सने पैरों को देखे तो उसे यह भान हो कि वह जातीयता के भेदभाव से रंगी हुई सीढ़ियों को चढ़ता हुआ किसी कीचड़ के दलदल से निकल, बहुत प्रयासों से यहाँ तक पहुँचा है। तब जाकर जातीयता के काले पृष्ठों पर शिक्षा के अक्षर दिखना आरम्भ होंगे और वास्तविकता में राष्ट्र प्रगति करेगा।
लेखक : नवी हसन (शोधार्थी, जामिया मिल्लिया इस्लामिया)
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