दलित होने की पीड़ा: केवल आरक्षण ही मानसिक स्वास्थ्य संकट का समाधान नहीं है

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दलितों के मानसिक स्वास्थ्य संकट का अनुभव बचपन से ही शुरू हो जाता है, जब उन्हें समाज में ‘अलग’ और ‘नीचा’ बताया जाता है। आरक्षण दलितों के लिए शैक्षिक और नौकरी के अवसर प्रदान करने का एक साधन है, लेकिन यह मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं का समाधान नहीं है। बता दें, IIT से पढ़ाई छोड़ने वाले 63% से अधिक छात्र आरक्षित श्रेणियों से हैं

भारत में जाति आधारित वर्चस्व की जड़ें इतनी गहरी हैं कि यह हमारे समाज की नींव में बसी है। यह संरचना न केवल सामाजिक और आर्थिक भेदभाव पैदा करती है, बल्कि उन लाखों दलितों के मानसिक स्वास्थ्य पर भी गंभीर प्रभाव डालती है जो इस व्यवस्था से प्रताड़ित होते हैं। आरक्षण की प्रणाली, जो दलितों और अन्य पिछड़ी जातियों के लिए शैक्षिक और नौकरी के अवसरों को सुरक्षित करने के लिए बनाई गई थी, मानसिक स्वास्थ्य संकट को पूरी तरह से संबोधित करने में असमर्थ है।

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जाति आधारित मानसिक तनाव का अनुभव

दलितों के मानसिक स्वास्थ्य संकट का अनुभव बचपन से ही शुरू हो जाता है, जब उन्हें समाज में ‘अलग’ और ‘नीचा’ बताया जाता है। स्कूलों में जाति को लेकर पूछे जाने वाले सवाल, उपनामों को लेकर मजाक और छोटे-छोटे सामाजिक संकेतों से यह भेदभाव शुरू हो जाता है। उच्च शिक्षा में प्रवेश पाने की आकांक्षा रखने वाले दलितों को यह भेदभाव एक नई चुनौती के रूप में मिलता है। यह केवल पढ़ाई या संसाधनों की कमी का सवाल नहीं है, बल्कि जाति आधारित संस्थागत ढांचे का हिस्सा बनने की उनकी कोशिशों पर ही सवाल उठाए जाते हैं।

IIT से पढ़ाई छोड़ने वाले 63% से अधिक छात्र आरक्षित श्रेणियों से हैं

उच्च शिक्षा के प्रतिष्ठित संस्थान जैसे आईआईटी और मेडिकल कॉलेज, जहां जाति आधारित भेदभाव का स्तर उच्चतम है, दलित छात्रों के लिए अक्सर मानसिक दबाव का केंद्र बन जाते हैं। BHU में हुई आत्महत्या से यह स्पष्ट होता है कि आरक्षित वर्ग के छात्रों के लिए ये संस्थान सामाजिक बहिष्कार और शैक्षिक दबाव का अड्डा बन गए हैं। आईआईटी से पढ़ाई छोड़ने वाले 63% से अधिक छात्र आरक्षित श्रेणियों से हैं, जो दर्शाता है कि केवल अकादमिक दबाव ही नहीं, बल्कि जातिगत भेदभाव भी उनके पीछे एक बड़ा कारण है।

संस्थान और प्रशासन केवल शैक्षणिक दबाव मानकर टाल देते हैं

दलित छात्रों की आत्महत्याएँ हमें यह बताती हैं कि जाति आधारित उत्पीड़न मानसिक स्वास्थ्य के लिए कितनी बड़ी चुनौती है। आत्महत्या जैसे मामलों में अक्सर संस्थान और प्रशासन इसे केवल शैक्षणिक दबाव मानकर टाल देते हैं, जबकि वास्तविकता में यह जाति आधारित बहिष्कार और उत्पीड़न का परिणाम होता है।

“शैक्षणिक दबाव” या “सामाजिक बहिष्कार”?

जब भी कोई दलित छात्र आत्महत्या करता है, तो इसे आमतौर पर ‘शैक्षणिक दबाव’ के नाम से बंद कर दिया जाता है। लेकिन सवाल यह उठता है कि ये दबाव केवल पढ़ाई का है या समाज की ओर से आने वाले अपमान, भेदभाव और सामाजिक बहिष्कार का भी? अक्सर ये छात्र न केवल पढ़ाई के दबाव से गुजरते हैं, बल्कि उन्हें यह भी सहना पड़ता है कि उनके सहपाठी और शिक्षक उन्हें कमतर आंकते हैं, उनके पारिवारिक और सामाजिक पृष्ठभूमि का मज़ाक उड़ाते हैं, और उन्हें ‘उनकी जगह’ दिखाने की कोशिश करते हैं।

आईआईटी, मेडिकल कॉलेज और अन्य प्रमुख शैक्षणिक संस्थानों में दलित छात्रों की आत्महत्याएँ केवल व्यक्तिगत संघर्ष नहीं हैं, बल्कि प्रणालीगत उत्पीड़न और भेदभाव का परिणाम हैं। इन संस्थानों में ‘मूल्यांकन’ केवल शैक्षणिक नहीं होता, बल्कि सामाजिक और जातिगत आधार पर भी होता है। दलित छात्रों को उच्चारण, भाषा, और उनकी सांस्कृतिक पृष्ठभूमि को लेकर लगातार मज़ाक का सामना करना पड़ता है, जो उन्हें सामाजिक और शैक्षणिक तौर पर अलग-थलग कर देता है।

आरक्षण के बाद की चुनौतियाँ

आरक्षण दलितों के लिए शैक्षिक और नौकरी के अवसर प्रदान करने का एक साधन है, लेकिन यह मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं का समाधान नहीं है। आरक्षण से दलितों को अवसर तो मिल सकते हैं, लेकिन समाज में उन्हें अभी भी समानता का अनुभव नहीं हो पाता। उच्च संस्थानों में प्रवेश पाने के बाद भी दलित छात्रों को अपने अस्तित्व को साबित करने की जद्दोजहद करनी पड़ती है। यह संघर्ष मानसिक थकान और अवसाद को जन्म देता है, क्योंकि उन्हें लगातार अपनी क्षमताओं और योग्यता के खिलाफ संदेह का सामना करना पड़ता है।

भारत में जाति और मानसिक स्वास्थ्य के बीच के संबंध

शिक्षा के क्षेत्र में इन समस्याओं को नज़रअंदाज करना, उन्हें केवल ‘अकादमिक प्रदर्शन’ के मुद्दे के रूप में देखना, और जातिगत उत्पीड़न की वास्तविकता को नकारना एक बड़ी भूल है। भारत में जाति और मानसिक स्वास्थ्य के बीच के संबंध पर अभी भी गंभीर चर्चा और शोध की कमी है। यह न केवल शिक्षा, बल्कि कामकाजी जीवन में भी एक बड़ी समस्या है। कॉर्पोरेट और शैक्षिक क्षेत्रों में विविधता, समानता और समावेशन के बारे में बातचीत अक्सर जाति आधारित मानसिक स्वास्थ्य संकट को दरकिनार कर देती है।

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मानसिक स्वास्थ्य के लिए समर्थन की आवश्यकता

समाज और शैक्षणिक संस्थानों को यह समझना होगा कि जातिगत उत्पीड़न केवल सामाजिक या आर्थिक समस्या नहीं है, बल्कि मानसिक स्वास्थ्य की भी गंभीर समस्या है। आरक्षण प्रणाली एक आवश्यक कदम है, लेकिन यह मानसिक स्वास्थ्य संकटों का समाधान नहीं हो सकता। इसके लिए समाज में एक गहरे बदलाव की आवश्यकता है, जिसमें जातिवाद के खिलाफ सख्त कदम उठाए जाएं और मानसिक स्वास्थ्य के समर्थन के लिए विशेष व्यवस्थाएँ बनाई जाएं।

दलित छात्रों और कर्मचारियों के लिए मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं की उपलब्धता को संस्थागत स्तर पर अनिवार्य किया जाना चाहिए। इसके साथ ही, जातिगत भेदभाव और उत्पीड़न के खिलाफ जागरूकता और संवेदनशीलता को बढ़ावा देना होगा। संस्थानों को ऐसे कार्यक्रम और नीतियाँ बनानी होंगी जो न केवल विविधता को प्रोत्साहित करें, बल्कि मानसिक स्वास्थ्य के मुद्दों को भी गंभीरता से लें।

दलितों के लिए मानसिक स्वास्थ्य का समर्थन सिर्फ एक अनिवार्यता नहीं, बल्कि एक अधिकार है। उन्हें ऐसी दुनिया की जरूरत है जहां वे केवल अस्तित्व के लिए नहीं, बल्कि पूर्ण आत्म-सम्मान और समानता के साथ जी सकें।

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