नीला रंग दलितों की पहचान और बाबा साहेब आंबेडकर के आंदोलन का प्रतीक है। हाल ही में राहुल गांधी और प्रियंका गांधी वाड्रा संसद के बाहर विरोध प्रदर्शन में नीले कपड़ों में नजर आए, जिससे यह सवाल उठा कि यह दलित समर्थन है या राजनीतिक रणनीति। कांग्रेस पर दलितों के प्रतीकों को सिर्फ वोट बैंक के लिए इस्तेमाल करने के आरोप लग रहे हैं।
नीला रंग आज दलित राजनीति और उनके सामाजिक आंदोलन का एक ऐसा प्रतीक बन गया है, जो उनके प्रतिरोध और पहचान को दर्शाता है। इसकी शुरुआत संविधान निर्माता डॉ. भीमराव आंबेडकर के समय से मानी जाती है। 1942 में डॉ. आंबेडकर ने शेड्यूल कास्ट फेडरेशन ऑफ इंडिया की स्थापना की और इसका झंडा नीले रंग का बनाया, जिसमें बीच में सफेद अशोक चक्र था। यह झंडा न केवल समानता, बंधुत्व और न्याय का प्रतीक था, बल्कि दलित समुदाय की स्वतंत्रता और उनके अधिकारों की लड़ाई का भी प्रतीक बना। 1956 में जब डॉ. आंबेडकर ने इस पार्टी को भंग कर रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया बनाई, तब भी झंडे का रंग नीला ही रखा गया।
राहुल गांधी का नीला अवतार: सियासी रणनीति या समर्थन?
हाल ही में गृह मंत्री अमित शाह की बाबा साहेब पर टिप्पणी के बाद संसद के बाहर हुए विरोध प्रदर्शन में राहुल गांधी और प्रियंका गांधी वाड्रा नीले कपड़ों में नजर आए। राहुल अपनी सिग्नेचर सफेद टी-शर्ट छोड़कर नीली टी-शर्ट में आए, और प्रियंका गांधी नीली साड़ी में। यह दृश्य चर्चा का विषय बन गया। लेकिन सवाल यह है कि क्या यह दलितों के प्रति सच्चा समर्थन था या सिर्फ एक सियासी रणनीति? कांग्रेस पर बार-बार यह आरोप लगता रहा है कि वह दलितों के मुद्दों को केवल राजनीतिक लाभ के लिए उपयोग करती है।
“बाबा साहब के संविधान में ही स्वर्ग निहित है”
नीला रंग: समर्थन या अवसरवाद?
राहुल गांधी और कांग्रेस पार्टी का दलितों के प्रति इतिहास मिलाजुला रहा है। एक ओर, पार्टी ने बाबा साहेब को सम्मान देने और दलितों के लिए योजनाएं बनाने का दावा किया है, वहीं दूसरी ओर, कांग्रेस के शासनकाल में दलितों के साथ हुए अत्याचारों और उनके अधिकारों की अनदेखी के कई उदाहरण मौजूद हैं। भाजपा और अन्य विपक्षी दलों ने राहुल के नीले कपड़ों को “नाटक” और “दिखावा” करार दिया है। सवाल यह भी उठता है कि अगर कांग्रेस दलितों की इतनी बड़ी हितैषी है, तो आज़ादी के बाद इतने दशकों तक सत्ता में रहते हुए उन्होंने दलितों की स्थिति सुधारने के लिए ठोस कदम क्यों नहीं उठाए?
सियासत में प्रतीकों का खेल
नीला रंग पहनने का यह कदम केवल एक प्रतीकात्मक समर्थन हो सकता है, लेकिन इससे दलित समुदाय के असली मुद्दे हल नहीं होते। दलितों को शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, और सामाजिक सुरक्षा जैसे मुद्दों पर ठोस नीतियों की आवश्यकता है, न कि केवल प्रतीकात्मक राजनीति की। राहुल गांधी का यह कदम कांग्रेस की तरफ से एक और प्रयास हो सकता है दलित वोट बैंक को साधने का। लेकिन क्या दलित समुदाय इसे समर्थन मानेंगे या अवसरवाद, यह बड़ा सवाल है।
नीला रंग भारतीय दलित समुदाय के संघर्ष और उनके प्रतिरोध का प्रतीक बन चुका है। इसकी जड़ें संविधान निर्माता डॉ. भीमराव आंबेडकर के जीवन और उनके द्वारा स्थापित संगठनों से जुड़ी हैं। रिटायर्ड आईपीएस अधिकारी और दलित समाजसेवी एस. आर. दारापुरी के हवाले से इंडिया टुडे की एक रिपोर्ट के अनुसार, डॉ. आंबेडकर ने 1942 में शेड्यूल कास्ट फेडरेशन ऑफ इंडिया की स्थापना की थी। इस संगठन का झंडा नीले रंग का था, जिसके बीच में सफेद अशोक चक्र बना हुआ था। यह झंडा न केवल संगठन की पहचान था, बल्कि समानता, बंधुत्व और न्याय के संदेश का भी प्रतीक था।
1956 में डॉ. आंबेडकर ने बौद्ध धर्म अपनाया और इसके साथ ही शेड्यूल कास्ट फेडरेशन ऑफ इंडिया को भंग कर रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया की स्थापना की। इस नई पार्टी का झंडा भी नीला रखा गया। नीला रंग, जो आकाश की विशालता और स्वच्छता का प्रतीक है, बाबा साहेब की विचारधारा का परिचायक बना। उनका मानना था कि यह रंग भेदभाव-मुक्त समाज का प्रतीक है, जहां सभी समान हैं।
नीला रंग और बौद्ध धर्म का संबंध
बौद्ध धर्म में नीला रंग शांति, करुणा और समानता का प्रतीक माना जाता है। जब डॉ. आंबेडकर ने बौद्ध धर्म को अपनाया, तो उन्होंने दलित समुदाय के लिए शांति और समानता का रास्ता दिखाया। नीला रंग उनके आंदोलन के प्रतीक के रूप में और गहराई से जुड़ गया। बाबा साहेब के अनुयायियों ने इस रंग को अपनाकर इसे प्रतिरोध और सामाजिक न्याय के संघर्ष का प्रतीक बना दिया।
दलित राजनीति में नीले रंग का स्थान
बाबा साहेब की विरासत को आगे बढ़ाते हुए, कांशीराम ने 1984 में बहुजन समाज पार्टी (बसपा) की स्थापना की। बसपा का झंडा भी नीला रखा गया, जिस पर सफेद हाथी बना था। यह झंडा दलित, पिछड़े और वंचित वर्गों के अधिकारों के लिए संघर्ष का प्रतीक बन गया। आज भी बसपा के झंडे का रंग नीला है, जो डॉ. आंबेडकर की विचारधारा को दर्शाता है।
नीले रंग का महत्व केवल राजनीतिक झंडों तक सीमित नहीं रहा। 2016 में जब रोहित वेमुला की आत्महत्या के बाद देशव्यापी प्रदर्शन हुआ, तो नीले झंडों और बैनरों का इस्तेमाल हुआ। 2018 में सुप्रीम कोर्ट द्वारा एससी/एसटी अत्याचार निवारण अधिनियम को कमजोर करने के खिलाफ दलित समुदाय ने बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन किए। इन आंदोलनों में भी नीला रंग प्रतिरोध का प्रमुख प्रतीक बना।
नीला रंग: दलित संगठनों और नेताओं का पसंदीदा प्रतीक
नीले रंग का महत्व केवल आंबेडकर और बसपा तक सीमित नहीं है। चंद्रशेखर आजाद की आजाद समाज पार्टी का झंडा भी नीला है, जिसके बीच में सफेद पट्टी है। चंद्रशेखर हमेशा नीले रंग का गमछा पहनते हैं, जो उनकी विचारधारा और दलित आंदोलन के प्रति उनके समर्पण को दर्शाता है।
रामदास आठवले की रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया (आठवले) का झंडा भी नीले रंग का है। यह झंडा शेड्यूल कास्ट फेडरेशन ऑफ इंडिया के झंडे से प्रेरित है, जो डॉ. आंबेडकर ने 1942 में बनाया था। इस झंडे पर सफेद अशोक चक्र बना हुआ है, जो भारतीयता और समानता का संदेश देता है।
सियासत में नीला रंग: समर्थन या रणनीति?
हाल के समय में नीले रंग का इस्तेमाल राजनीतिक प्रतीक के रूप में बढ़ा है। राहुल गांधी और प्रियंका गांधी वाड्रा का संसद के बाहर विरोध प्रदर्शन में नीले कपड़ों में नजर आना इस बात का संकेत है कि सियासी दल भी इस प्रतीक का महत्व समझने लगे हैं। हालांकि, यह सवाल उठता है कि क्या यह कदम दलित समुदाय के प्रति सच्चे समर्थन का संकेत था, या सिर्फ राजनीतिक रणनीति?
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नीला रंग और सियासत का खेल
नीला रंग अब केवल एक रंग नहीं, बल्कि दलित समुदाय की संघर्ष गाथा का प्रतीक है। राहुल गांधी और प्रियंका गांधी का नीला पहनना भले ही एक बड़ा राजनीतिक संदेश हो, लेकिन यह तब तक अधूरा है, जब तक दलित समुदाय के लिए ठोस काम नहीं किए जाते। दलितों के लिए नीला रंग उनके सपनों और अधिकारों का प्रतिनिधित्व करता है। राजनीतिक पार्टियों को इस रंग को केवल अपनी सियासी रोटियां सेंकने के लिए इस्तेमाल करने के बजाय, उनके मुद्दों को गंभीरता से लेना चाहिए।
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