महाराष्ट्र चुनाव में दलित वोटर्स की भूमिका महत्वपूर्ण है; उनका रुख किसी भी पार्टी की सफलता तय करेगा। पिछले चुनावों में उन्होंने महा विकास आघाड़ी को समर्थन दिया, जिससे बीजेपी की स्थिति कमजोर हुई है। दलितों में नाराजगी और उपेक्षा के चलते उनका वोट बैंक चुनावी नतीजों पर बड़ा प्रभाव डाल सकता है।
महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में दलित वोटरों की स्थिति बेहद महत्वपूर्ण हो गई है। मराठा-ओबीसी, धनगर-आदिवासी, मुस्लिम-अल्पसंख्यक वोटरों के बीच दलित वोटर एक निर्णायक भूमिका निभा सकते हैं। पिछले कुछ चुनावों के आंकड़ों और वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य को देखते हुए यह स्पष्ट हो रहा है कि दलित मतदाता जिस ओर झुकेंगे, उसी दिशा में महाराष्ट्र की राजनीतिक दिशा तय होगी। दलितों का यह राजनीतिक महत्व होने के बावजूद, उन्हें न केवल उपेक्षित किया जा रहा है, बल्कि उनके अधिकारों को भी कमजोर करने के प्रयास किए जा रहे हैं। रामदास आठवले की रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया (आरपीआई-ए) को महायुति का हिस्सा बनाने के बावजूद उन्हें सीटों के बंटवारे में महत्व नहीं मिला। आठवले द्वारा देवेंद्र फडणवीस से 12 सीटों की मांग करने के बावजूद उन्हें नजरअंदाज किया गया, जिससे दलित कार्यकर्ताओं में रोष और नाराजगी बढ़ गई है। इस उपेक्षा से यह सवाल खड़ा होता है कि महायुति में दलितों के प्रति इतनी बेरुखी क्यों है, खासकर तब जब दलितों का रुझान ही चुनावी परिणामों में निर्णायक सिद्ध हो सकता है।
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दलित वोटों की ताकत और महाराष्ट्र में उनका गणित
महाराष्ट्र में दलित वोटों की गणना पर ध्यान दें तो वे चुनावी परिणाम को काफी प्रभावित कर सकते हैं। 2011 की जनगणना के अनुसार राज्य में दलितों की आबादी 11.81% थी, और अब अनुमान है कि 2024 में यह बढ़कर 15% के करीब होगी। महाराष्ट्र की 288 विधानसभा सीटों में से 29 सीटें अनुसूचित जातियों (एससी) के लिए आरक्षित हैं, जिनमें दलित मतदाता एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। इन 29 सीटों के अलावा 67 अन्य सीटें ऐसी हैं, जहाँ दलित आबादी 15% से अधिक है। पिछले विधानसभा चुनावों में इन सीटों पर बीजेपी, शिवसेना (शिंदे) और एनसीपी (अजित पवार) के उम्मीदवारों को सफलता मिली थी, लेकिन अब लोकसभा चुनाव के नतीजे एक अलग तस्वीर पेश कर रहे हैं। इस बदलाव के पीछे दलित वोटरों का असंतोष और उनकी बदलती राजनीतिक दृष्टि का महत्वपूर्ण योगदान है।
लोकसभा चुनाव में दलित वोटों का रुझान और बदलती राजनीतिक तस्वीर
2019 के विधानसभा चुनाव में महायुति को दलितों का समर्थन मिला था, लेकिन 2024 के लोकसभा चुनावों में दलितों ने महा विकास आघाड़ी (एमवीए) के पक्ष में समर्थन किया। लातूर, रामटेक, सोलापुर, अमरावती, और शिर्डी जैसे अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित लोकसभा सीटों पर एमवीए के उम्मीदवारों की जीत ने यह संकेत दिया कि दलित वोटरों का झुकाव बदल चुका है। एमवीए ने इन क्षेत्रों में अच्छा प्रदर्शन किया, और इसका प्रमुख कारण दलितों के मन में बीजेपी के प्रति बढ़ता असंतोष था। इससे यह स्पष्ट हुआ कि अब दलित वोटरों का झुकाव महायुति से हटकर एमवीए की ओर हो रहा है, और विधानसभा चुनावों में यह परिवर्तन परिणामों को प्रभावित कर सकता है।
दलितों में आक्रोश और बीजेपी के प्रति बढ़ती नाराजगी
बीजेपी अपने समर्थकों के बीच यह प्रचार कर रही है कि विपक्ष आरक्षण और संविधान को लेकर फर्जी डर फैला रहा है, लेकिन असलियत में दलितों के बीच गहरा असंतोष है। विशेष रूप से बौद्ध दलितों का मानना है कि बीजेपी दलितों को बांटने की राजनीति कर रही है। बौद्ध दलितों में यह धारणा बन रही है कि बीजेपी ने दलित समाज को मातंग और बौद्ध में बांटने की रणनीति अपनाई है, जिससे उनके आरक्षण का हिस्सा घट सकता है। इस बंटवारे की भावना ने दलित समाज में आक्रोश को और भी बढ़ा दिया है। महाराष्ट्र में दलितों की लगभग 59 जातियां हैं, जिनमें महार (बौद्ध) समुदाय का हिस्सा सबसे बड़ा है, जो अंबेडकरवादी विचारधारा का समर्थक है। इस समुदाय की अपेक्षाएँ सामाजिक न्याय और सशक्तिकरण से जुड़ी हैं, लेकिन वर्तमान राजनीतिक परिस्थितियों में वे अपने अधिकारों को लेकर चिंतित हैं।
आरक्षण विभाजन का खतरा और दलितों के भीतर मतभेद
महाराष्ट्र में अनुसूचित जातियों को शिक्षा और नौकरियों में 13% आरक्षण मिलता है। लेकिन अब बौद्ध दलितों में यह धारणा पनप रही है कि मातंग जाति को हिंदू दलित कहकर समाज में विभाजन पैदा किया जा रहा है। मातंग समुदाय का मानना है कि महार (बौद्ध) जाति आरक्षण का बड़ा हिस्सा ले जाती है, जिससे वे खुद को वंचित महसूस करते हैं। इस विभाजन के कारण दलित समाज में भीतर ही भीतर संघर्ष बढ़ रहा है, और राजनीतिक पार्टियाँ इसे अपने लाभ के लिए भुना रही हैं। बौद्ध दलित नेता इस आरक्षण विभाजन के खिलाफ हैं और इसे समाज में फूट डालने का प्रयास मानते हैं। उनका मानना है कि इस विभाजन से दलितों का अधिकार कमजोर होगा और आरक्षण का लाभ केवल कुछ गिनी-चुनी जातियों तक सीमित रह जाएगा।
राजनीतिक दलों के लिए दलित वोट बैंक: समर्थन और उपेक्षा की राजनीति
राजनीतिक दल दलित वोट बैंक को साधने की कोशिश करते रहे हैं, लेकिन उनका समर्थन पाने के बाद उपेक्षा की जाती है। आरपीआई (ए) के अध्यक्ष रामदास आठवले को महायुति में शामिल तो किया गया, लेकिन उन्हें एक भी सीट नहीं मिली। यह दलित नेताओं की उस उपेक्षा को दर्शाता है जो उनके समर्थन के बाद भी दलित समाज को उनके हक से वंचित रखती है। महायुति के इस रवैये से दलित कार्यकर्ता नाराज हैं, और रामदास आठवले ने सार्वजनिक रूप से अपनी नाराजगी जाहिर की है। इससे साफ है कि दलितों के साथ महायुति का व्यवहार केवल उन्हें वोट बैंक की तरह इस्तेमाल करने तक सीमित है।
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निष्कर्ष: दलित वोटों का बदलता समीकरण और सत्ता की कुंजी
महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में दलितों का रुझान सत्ता का समीकरण बदलने में निर्णायक सिद्ध हो सकता है। लोकसभा चुनाव में दलितों ने बीजेपी का साथ छोड़ महा विकास आघाड़ी का समर्थन किया, जिससे यह स्पष्ट हो गया कि दलित समाज की उपेक्षा किसी भी पार्टी के लिए महंगी साबित हो सकती है। एमवीए ने दलितों के असंतोष को समझते हुए उन्हें अपने पक्ष में कर लिया है, और विधानसभा चुनाव में यह समर्थन महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। बीजेपी के लिए यह चेतावनी है कि दलितों की उपेक्षा करने से उनकी चुनावी सफलता प्रभावित हो सकती है। दलितों की राजनीतिक जागरूकता और उनके अधिकारों के प्रति बढ़ती मांग से स्पष्ट है कि महाराष्ट्र चुनाव में उनकी निर्णायक भूमिका होगी, और जिस पार्टी का समर्थन उन्हें मिलेगा, उसकी नैया पार हो सकती है।
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