दिल्ली विधानसभा चुनाव में ‘बहनजी’ मायावती ने बीएसपी को अकेले दम पर उतारकर दलित वोट बैंक पर अपनी दावेदारी ठोकी है। 2008 में बीएसपी का मजबूत जनाधार था, लेकिन आम आदमी पार्टी ने दलित वोट खींचकर उसे कमजोर कर दिया। आंबेडकर विवाद के बीच मायावती का यह कदम कांग्रेस और आप के लिए चुनौती बन सकता है, जबकि बीजेपी को अप्रत्यक्ष फायदा हो सकता है। यूपी के मिल्कीपुर उपचुनाव को छोड़कर मायावती ‘बहनजी’ का दिल्ली पर फोकस उनकी खोई साख वापस पाने की बड़ी रणनीति का हिस्सा है।
दिल्ली विधानसभा चुनाव में दलित वोटों की राजनीति एक बार फिर सुर्खियों में है। हाल के दिनों में आंबेडकर के मुद्दे पर बीजेपी और कांग्रेस के बीच तीखी बयानबाजी देखी गई, लेकिन अरविंद केजरीवाल ने इस मामले में चुप्पी साधकर एक अलग लाइन ली। इस विवाद ने दलित वोटों के महत्व को और अधिक उजागर किया। इसी बीच ‘बहनजी’ मायावती ने दिल्ली चुनाव में बहुजन समाज पार्टी (बीएसपी) के अकेले दम पर चुनाव लड़ने की घोषणा कर सियासी हलकों में हलचल मचा दी है। ‘बहनजी’ मायावती का यह कदम न सिर्फ दलित वोटों को साधने की रणनीति है, बल्कि दिल्ली में उनके घटते जनाधार को फिर से मजबूत करने की कोशिश भी है।
दिल्ली में बीएसपी का इतिहास और ‘बहनजी’ की नई रणनीति
2008 में दिल्ली विधानसभा चुनाव में बीएसपी ने 14.05 फीसदी वोट हासिल किए थे और दो सीटों पर जीत दर्ज की थी। लेकिन 2020 तक आते-आते यह आंकड़ा महज 0.71 फीसदी पर सिमट गया। बदरपुर और गोकलपुर जैसे इलाकों में बीएसपी का मजबूत आधार था, लेकिन अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी (आप) ने इन इलाकों में बीएसपी के नेताओं को अपनी ओर खींचकर दलित वोट बैंक को अपने पक्ष में कर लिया। ‘बहनजी’ की नजर अब इन सीटों पर फिर से पकड़ बनाने पर है। बदरपुर, गोकलपुर, तुगलकाबाद, बाबरपुर, मंगोलपुरी और ओखला जैसे विधानसभा क्षेत्रों में बीएसपी की रणनीति आप और कांग्रेस के लिए सिरदर्द बन सकती है।
दलित वोटों में बंटवारा: किसे होगा फायदा, किसे नुकसान?
लोकनीति-CSDS के अनुसार, दिल्ली में करीब 17 फीसदी दलित मतदाता हैं, जो चुनावी नतीजों को निर्णायक रूप से प्रभावित कर सकते हैं। 2019 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी को दलित वोटों का 49 फीसदी समर्थन मिला था, जबकि आप को 25 फीसदी और कांग्रेस को 24 फीसदी वोट मिले थे। विधानसभा चुनाव में दलित वोट आम तौर पर आम आदमी पार्टी के पक्ष में झुके रहे हैं, लेकिन ‘बहनजी’ की एंट्री ने समीकरण बदलने की संभावना बढ़ा दी है। अगर बीएसपी दलित वोटों का छोटा हिस्सा भी अपने पक्ष में करने में सफल होती है, तो इसका सीधा नुकसान आप और कांग्रेस को होगा, और इसका अप्रत्यक्ष लाभ बीजेपी को मिल सकता है।
‘बहनजी’ का ‘दिल्ली दांव’: यूपी से ज्यादा महत्वपूर्ण क्यों?
दिल्ली चुनाव लड़ने की ‘बहनजी’ की घोषणा ने राजनीतिक विश्लेषकों को हैरान कर दिया है, क्योंकि इसी समय उत्तर प्रदेश की मिल्कीपुर सीट पर उपचुनाव भी हो रहे हैं। ‘बहनजी’ मायावती ने मिल्कीपुर को दरकिनार कर दिल्ली को प्राथमिकता दी है। ‘बहनजी’ का यह कदम यह इशारा करता है कि वह दिल्ली में अपनी खोई हुई साख वापस पाने के लिए पूरी ताकत झोंकना चाहती हैं। 2022 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में अकेले लड़ने के बाद बीएसपी को महज एक सीट मिली थी, लेकिन ‘बहनजी’ ने हार नहीं मानी।
दिल्ली के दलित वोटरों से ‘बहनजी’ की अपील
‘बहनजी’ ने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म X पर पोस्ट करके दिल्ली के मतदाताओं से बीएसपी को वोट देने की अपील की है। उन्होंने कहा है, “किसी भी पार्टी के लुभावने वादों के झांसे में न आएं। अपने वोट का समझदारी से इस्तेमाल करें और जनकल्याण के लिए बीएसपी का समर्थन करें।” बहनजी ने चुनाव आयोग से स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव कराने की भी अपील की है।
बीएसपी का अकेला दम और दिल्ली में नया समीकरण
दिल्ली चुनाव में ‘बहनजी’ की रणनीति यह संकेत देती है कि बीएसपी अब बीजेपी, कांग्रेस और आप से अलग अपनी पहचान बनाने की कोशिश कर रही है। 2008 के बाद से बीएसपी का दिल्ली में जनाधार गिरता गया, लेकिन ‘बहनजी’ की एंट्री ने यह साफ कर दिया है कि वह दिल्ली के दलित वोटरों पर अपनी पकड़ फिर से मजबूत करने के लिए तैयार हैं।
यदि ‘बहनजी’ की यह रणनीति कामयाब होती है, तो यह न सिर्फ दिल्ली की राजनीति को बदल सकती है, बल्कि 2024 के लोकसभा चुनावों में भी बीएसपी के लिए नई संभावनाएं खोल सकती है।
बहनजी मायावती का दांव किसके लिए खतरा?
दिल्ली विधानसभा चुनाव में ‘बहनजी’ का दांव आप, कांग्रेस और बीजेपी तीनों के लिए चुनौती बन सकता है। जहां आप दलित वोट बैंक पर अपनी पकड़ को बनाए रखने की कोशिश में है, वहीं कांग्रेस आंबेडकर विवाद के जरिए दलितों को अपनी ओर खींचने की कोशिश कर रही है। बीजेपी को अप्रत्यक्ष रूप से बीएसपी की एंट्री का फायदा हो सकता है, लेकिन मायावती ‘बहनजी’ के इस कदम ने यह तो साफ कर दिया है कि दिल्ली की दलित राजनीति में वह एक बार फिर से प्रासंगिक बनना चाहती हैं।
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