महाराष्ट्र में दलित राजनीति कमजोर है, क्योंकि दलित आबादी (13%) भले ही महत्वपूर्ण हो, लेकिन जातीय विभाजन (महार बनाम मातंग), वोटों का बंटवारा, और दलित पार्टियों की सीमित रणनीतियां इसे प्रभावशाली नहीं बनने देतीं। आरपीआई और वंचित बहुजन अघाड़ी जैसी पार्टियां महार जाति तक सिमटी हैं और अन्य जातियों को जोड़ने में नाकाम रही हैं।
महाराष्ट्र में दलित राजनीति को लेकर एक बड़ा सवाल है: आखिर संविधान निर्माता बाबासाहेब भीमराव आंबेडकर के राज्य में दलित राजनीति इतनी कमजोर क्यों है? राज्य में दलितों की आबादी 13% है, जो चुनावी राजनीति में महत्वपूर्ण मानी जा सकती है। फिर भी, महाराष्ट्र की दलित राजनीति, न सिर्फ राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में, बल्कि राज्य स्तर पर भी सशक्त उपस्थिति दर्ज कराने में नाकाम रही है। इस स्थिति को समझने के लिए हमें कई पहलुओं पर गौर करना होगा, जिनमें दलित आबादी की संरचना, जातीय विभाजन, वोटिंग पैटर्न और राजनीतिक दलों की रणनीतियां शामिल हैं।
दलित आबादी का प्रतिशत: संख्या तो है, लेकिन प्रभाव नहीं
महाराष्ट्र में दलितों की आबादी कुल जनसंख्या का 13% है। यह संख्या डबल डिजिट में होने के बावजूद यूपी (21%) और बिहार (19%) जैसे राज्यों के मुकाबले राजनीतिक प्रभाव पैदा करने में सक्षम नहीं है। इसका कारण यह है कि महाराष्ट्र में दलित आबादी अलग-अलग जिलों में बिखरी हुई है। पुणे, नागपुर और ठाणे जैसे जिलों में इनकी अधिक उपस्थिति है, लेकिन ये राज्य के अन्य हिस्सों में पर्याप्त प्रभाव नहीं डाल पाते। 288 विधानसभा सीटों में से 29 अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित हैं, और केवल 60 सीटों पर दलित वोट निर्णायक भूमिका निभा सकते हैं। यह संख्या महाराष्ट्र के व्यापक राजनीतिक समीकरण में निर्णायक बदलाव के लिए पर्याप्त नहीं है।
जातीय और धार्मिक विभाजन: एकजुटता की कमी
महाराष्ट्र के दलित समुदाय में विभाजन ने दलित राजनीति को कमजोर किया है। राज्य में प्रमुख दलित जातियां महार और मातंग हैं। महार जाति, जो आंबेडकर की विचारधारा का पालन करती है, मुख्यतः बौद्ध धर्म अपनाने वालों में शामिल है। वहीं, मातंग जाति हिंदू धर्म में बनी हुई है। इन दो जातियों के बीच बुद्धिस्ट और हिंदू पहचान का अंतर है, जो उनके राजनीतिक रुझानों को भी प्रभावित करता है। आरपीआई और वंचित बहुजन अघाड़ी जैसी पार्टियां महार जाति पर केंद्रित हैं, जबकि मातंग जातियां कांग्रेस, बीजेपी और अन्य पार्टियों का समर्थन करती हैं। यह विभाजन दलित राजनीति के एकजुट आधार को कमजोर करता है।
वोटिंग पैटर्न: विभाजित समर्थन
महाराष्ट्र के दलित मतदाता एक संगठित वोटबैंक के रूप में उभरने में विफल रहे हैं। सीएसडीएस की रिपोर्ट के अनुसार, दलित वोटों का एक बड़ा हिस्सा महा विकास आघाड़ी को मिला, लेकिन यह समर्थन भी 50% से कम था। महायुति और एमवीए के बीच दलित वोट बंट जाते हैं, जिससे दलित राजनीति कमजोर होती है। संविधान और आरक्षण जैसे भावनात्मक मुद्दों के बावजूद, दलित मतदाता एक सुसंगत राजनीतिक एजेंडा पर लामबंद नहीं हो पाए।
दलित पार्टियों की सीमित रणनीति: महार केंद्रित राजनीति
महाराष्ट्र की दलित पार्टियां, जैसे कि आरपीआई और वंचित बहुजन अघाड़ी, मुख्यतः महार जाति तक सीमित हैं। रामदास अठावले की आरपीआई बीजेपी के साथ गठबंधन में है, लेकिन केवल दो सीटों पर ही सीमित है। प्रकाश आंबेडकर की वंचित बहुजन अघाड़ी इंडिया गठबंधन का हिस्सा नहीं बन सकी। ये पार्टियां गैर-महार जातियों या अन्य समुदायों को अपने साथ जोड़ने में विफल रही हैं। इसके विपरीत, यूपी में मायावती की बहुजन समाज पार्टी ने जाटवों के साथ अन्य दलित जातियों और ब्राह्मणों को भी जोड़ने की कोशिश की, जिससे वह सत्ता में आ सकीं। महाराष्ट्र की पार्टियां इस मॉडल को अपनाने में असमर्थ रही हैं।
दलित राजनीति के क्षेत्रीय प्रभाव और नतीजे
महाराष्ट्र में 29 आरक्षित सीटों में से 18 सीटों पर महा विकास आघाड़ी ने हालिया चुनावों में बढ़त हासिल की। लेकिन यह दलित राजनीति की ताकत नहीं, बल्कि गठबंधन के व्यापक समर्थन का परिणाम था। महायुति को केवल 10 सीटों पर बढ़त मिली। क्षेत्रीय पार्टियां, जैसे बहुजन विकास अघाड़ी, केवल वसई-विरार तक सीमित हैं।
दलित राजनीति का भविष्य
महाराष्ट्र में दलित राजनीति को सशक्त बनाने के लिए एक व्यापक रणनीति की जरूरत है। दलित पार्टियों को जातिगत सीमाओं से ऊपर उठकर अन्य समुदायों को जोड़ना होगा। इसके अलावा, उन्हें संविधान और आरक्षण जैसे मुद्दों को लेकर व्यापक अभियान चलाना होगा। अगर महाराष्ट्र की दलित पार्टियां अपने कोर वोटर से बाहर निकलकर अन्य जातियों और समूहों को जोड़ने की रणनीति अपनाती हैं, तो वे राज्य और राष्ट्रीय स्तर पर एक मजबूत राजनीतिक ताकत बन सकती हैं। लेकिन तब तक, महाराष्ट्र में दलित राजनीति हाशिए पर ही बनी रहेगी।
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